कृषि से प्रेरित और मिट्टी से जुडी हुई है ‘मांडणा’...
भारत वर्ष की ‘मांडणा’ विधा यह कृषि जीवन से प्रेरित है और मिट्टी से जुडी हुई हैI किसानों के लिए खेतों मे उगने वाली हर एक फसल यह माता लक्ष्मी का रूप होता हैI फसल पूरी तरह तैय्यार हो जाने पर, उसे कटाई कर के घर लाया जाता है तब उल्हासित हुआ राजस्थानी मन माता लक्ष्मी की अगवानी के लिए ‘मांडणा’ मांडने के लिए दौड़ चल पड़ता हैI
वर्ष 1970-75 के दरम्यान की यह बात हैl तब मै दस वर्ष आयु का थाl उस वक्त मेरे घर की आर्धिक स्थिती ठीक नहीं थीl इस दौरान खेती के उत्पन्न के अलावा हमारे घर में कमाई का कोई जरिया नहीं थाI इसी कारण मेरे घर के सभी खेत में काम करने के लिए जाते थेI स्कुल छूटने के बाद मै भी खेत में जाया करता थाl मेरा बचपन कृषि से जुडा हुआ हैI कपास चुगने और घास कटाई जैसे खेती के काम में मुझे अधिक दिलचस्पी थीl कपास, ज्वार, तिल्ली, तुवर, उडद, मुंग के बीज बोने से लेकर अंकुरीत होनाl बाद में उसके विकसित होने की हर एक प्रक्रिया का मै बारीकी से निरिक्षण करते रहता थाI कपास चुगते-चुगते मैं कपास के पौधे, उसके पर्ण, फुल तथा फुयों की रचना का बारीकी से अध्ययन करते रहता थाI
उस समय मराठी पाठशाला में शारीरिक शिक्षण का पाठ होता थाI इस पाठ में लकड़े के आयताकृती पाटे पर कपास के फोए को रखकर उसे लोहे के सलाई से बेलते- बेलते सरकी को अलग निकलना पड़ता थाI चरखे पर सूत कताई भी करनी पड़ती थीI
उन दिनों गांव में बिजली नहीं थीI इसलिए प्रति दिन मिट्टी के तेल के दीयों के लिए रुई को दोनों हाथ के हथेलीयों में रख रगड़- रगड़ कर मोटी मोटी बातियाँ बनायीं जाती थीI दीपावली पर मिट्टी के दीपक जलाने के किए छोटे छोटे आकार की बातियाँ करने के लिए दादी के साथ मै बैठ जाता थाI
बचपन से जुडी कई छोटी-मोटी बातें, उनसे जुडी हुई खट्टी-मीठी यादें आज भी परछाई की तरह मेरे साथ होती हैl मांडणों के निमित्त से अनेक विषयों पर अध्ययन, चिंतन करते समय एक बात स्पष्ट हुई है कि- जिस तरह छलनी से अनाज को छानने पर छोटे-छोटे पत्थर-कंकड़ अलग हो जाते हैl ठीक उसी तरह बदलते परिवेश में हमारी पुरानी परम्पराओं और संस्कृति के अविभाज्य अंग के रूप में जुडी हुई विधाओं के कुछ अंश, उनकी बारीकियां हमारे समाज जीवन से बड़े तेजी से अलग हो गयी हैंl जीवन कि इस आपाधापी में हमने हमारे लिए जो उपयुक्तं है, अति आवश्यक हैl बस, उसे ही अपने पास रखा हैl बाहरी खुशी की तलाश में हमने अपने भीतर के मन का आंगन खोखला कर दिया हैl मन के बगीचे के पौंधे उखाड़ फेंके हैl
इन दिनों मैंने कई अनूठे मांडणा विकसित किए है जो कृषि से प्रेरित हैI वे अत्यंत सहज-सरल है, लेकिन जिनका मांडणों और कृषि से कोई लगाव नहीं है, उन्हें समझने के लिए वे उतने ही कठिन हैI उनके लिए वे केवल एक चित्र-आकृति के भांति हैI मैंने ऐसे घटकों का चयन किया है, जिन्हें आज तक मांडणा में उकेरा नहीं गया हैI पर उनसे जुडी हुई कई मिथक-कहानियां जरुर हैI उनका जितना महत्त्व पुराने लोक जीवन शैली में था उतना ही महत्त्व आज के आधुनिक जीवन शैली में कायम बना हुआ हैl और आगे भी बना रहेगाI उनके प्रयोग के बीना उत्सव-त्यौहारों को मनाना भी असंभव हैI जिस तरह हमारे पूर्वजों ने अपने जीवन से जुडी हुई कई चीज-वस्तुओं को महत्त्व तथा उन्हें स्थायित्व प्रदान करने की सोच रख कर उन्हें मांडणों में उकेरा हुआ हैl ठीक इसी प्रकार की सोच इन मांडणाकृतियों को स्केच बुक में रेखांकित करते समय मेरे मन में थीI
(आगामी पुस्तक Mandanagraphy से साभार व अनुवादीत अंशl)
उस समय मराठी पाठशाला में शारीरिक शिक्षण का पाठ होता थाI इस पाठ में लकड़े के आयताकृती पाटे पर कपास के फोए को रखकर उसे लोहे के सलाई से बेलते- बेलते सरकी को अलग निकलना पड़ता थाI चरखे पर सूत कताई भी करनी पड़ती थीI
उन दिनों गांव में बिजली नहीं थीI इसलिए प्रति दिन मिट्टी के तेल के दीयों के लिए रुई को दोनों हाथ के हथेलीयों में रख रगड़- रगड़ कर मोटी मोटी बातियाँ बनायीं जाती थीI दीपावली पर मिट्टी के दीपक जलाने के किए छोटे छोटे आकार की बातियाँ करने के लिए दादी के साथ मै बैठ जाता थाI
बचपन से जुडी कई छोटी-मोटी बातें, उनसे जुडी हुई खट्टी-मीठी यादें आज भी परछाई की तरह मेरे साथ होती हैl मांडणों के निमित्त से अनेक विषयों पर अध्ययन, चिंतन करते समय एक बात स्पष्ट हुई है कि- जिस तरह छलनी से अनाज को छानने पर छोटे-छोटे पत्थर-कंकड़ अलग हो जाते हैl ठीक उसी तरह बदलते परिवेश में हमारी पुरानी परम्पराओं और संस्कृति के अविभाज्य अंग के रूप में जुडी हुई विधाओं के कुछ अंश, उनकी बारीकियां हमारे समाज जीवन से बड़े तेजी से अलग हो गयी हैंl जीवन कि इस आपाधापी में हमने हमारे लिए जो उपयुक्तं है, अति आवश्यक हैl बस, उसे ही अपने पास रखा हैl बाहरी खुशी की तलाश में हमने अपने भीतर के मन का आंगन खोखला कर दिया हैl मन के बगीचे के पौंधे उखाड़ फेंके हैl
इन दिनों मैंने कई अनूठे मांडणा विकसित किए है जो कृषि से प्रेरित हैI वे अत्यंत सहज-सरल है, लेकिन जिनका मांडणों और कृषि से कोई लगाव नहीं है, उन्हें समझने के लिए वे उतने ही कठिन हैI उनके लिए वे केवल एक चित्र-आकृति के भांति हैI मैंने ऐसे घटकों का चयन किया है, जिन्हें आज तक मांडणा में उकेरा नहीं गया हैI पर उनसे जुडी हुई कई मिथक-कहानियां जरुर हैI उनका जितना महत्त्व पुराने लोक जीवन शैली में था उतना ही महत्त्व आज के आधुनिक जीवन शैली में कायम बना हुआ हैl और आगे भी बना रहेगाI उनके प्रयोग के बीना उत्सव-त्यौहारों को मनाना भी असंभव हैI जिस तरह हमारे पूर्वजों ने अपने जीवन से जुडी हुई कई चीज-वस्तुओं को महत्त्व तथा उन्हें स्थायित्व प्रदान करने की सोच रख कर उन्हें मांडणों में उकेरा हुआ हैl ठीक इसी प्रकार की सोच इन मांडणाकृतियों को स्केच बुक में रेखांकित करते समय मेरे मन में थीI
(आगामी पुस्तक Mandanagraphy से साभार व अनुवादीत अंशl)
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