मिट्टी के कच्चे घर-आँगनों मे मांडे हुए मांडणा देखने पर मानो ऐसा लगता है कि यहां कलाकार अपने मन में दबाई रखी हुई किसी न किसी बात को मांडणों में मांडा हुआ है... या मांडणों में अपनी कोई कविता लिखी हुई हैI किसी की किसी के प्रति इर्षा नहीं... केवल अपना घर-आंगन सुंदर दिखे यहीं भाव मन में रख कर मांडे हुए होते है मांडणाl
कभी कभी यह भी महसूस होता है कि गोबर-मिट्टी से लीपे-पोते हुए आंगनों, जमीन व घर की भीतर के भित्तियों (भीतों), बाखड़ और ओटडा पर बने हुए मांडणा भी वीरान महलों- हवेलियों की तरह अपनी कोई कहानी बखान कर रहे हैI उनसे जुडी जरुर कोई कहानीयां है... पर वह कहीं दबी हुई हैl
अभी भी झुरी खाई अनपढ़ अंगुलियां जब उजले खडिया से मांडणा मांडती है तो इन मांडणों में प्रयोग किए हुए चिन्ह की भाषा को हम पढ़े-लिखे भी पढ़ नहीं पाते है, न उनके अर्थ ठीक से समझ पाते हैl
सदियों से सहेजती आ रहीं मांडणा को न जाने कितने अनगिनत मोटी, पतली, कच्ची, पक्की, सीधी, झुरी खाई अंगुलियों ने तीज-त्यौहारों पर अपने घर-आंगनों में उकेरा हैl न जाने मांडणा के कितने अनगिनत रूप हमारे जीवन में प्रसन्नता और खुशियां बिखेर कर समय के साथ भीतों की लिपाई-पुताई करते समय गोबर-मिट्टी में समा गए हैI हवा से उठती आंगनों की धुल-मिट्टी में... इतिहास के पन्नहों में समा गए हैl
मांडणा’ से जुडी एक नहीं, कई कहानीयां है... बचपन में मैंने अपनी दादी से वह सुनी हैl पर अब उसे बखान करने वाले और इसे सुनने वाले कहीं पर नजर नहीं आते हैl पहेलियों, कहानियों, लोकगीतों में, हमारे समाज जीवन में मांडणा घुली-मिली हुई हैl
सदियों से सहेजती आ रहीं मांडणा को न जाने कितने अनगिनत मोटी, पतली, कच्ची, पक्की, सीधी, झुरी खाई अंगुलियों ने तीज-त्यौहारों पर अपने घर-आंगनों में उकेरा हैl न जाने मांडणा के कितने अनगिनत रूप हमारे जीवन में प्रसन्नता और खुशियां बिखेर कर समय के साथ भीतों की लिपाई-पुताई करते समय गोबर-मिट्टी में समा गए हैI हवा से उठती आंगनों की धुल-मिट्टी में... इतिहास के पन्नहों में समा गए हैl
मांडणा’ से जुडी एक नहीं, कई कहानीयां है... बचपन में मैंने अपनी दादी से वह सुनी हैl पर अब उसे बखान करने वाले और इसे सुनने वाले कहीं पर नजर नहीं आते हैl पहेलियों, कहानियों, लोकगीतों में, हमारे समाज जीवन में मांडणा घुली-मिली हुई हैl
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